दिल्ली – हाईकोर्ट आफ हिमाचल प्रदेश ने 13 साल बाद मारपीट के मामले में कई आरोपियों को बरी करते हुए कहा कि जब आरोपी गवाह के लिए अजनबी हों तो आईडेंटिफिकेशन परेड करना जरूरी है। न्यायालय ने कहा कि पहचान स्थापित करने में विफलता मामले की जड़ तक जाती है, क्योंकि इससे यह संभावना पैदा होती है कि आरोपी की गलत-सही की पहचान की गई थी।
हाई कोर्ट जस्टिस सुशील कुकरेजा ने कहा, “अभियोजन पक्ष द्वारा जांचे गए इन गवाहों यानी पीडब्लू-1 से पीडब्लू-3 के बयानों का एकमात्र अवलोकन इस तथ्य का स्पष्ट संकेत देता है कि कुछ आरोपी व्यक्ति उक्त गवाहों के लिए अजनबी थे और इन परिस्थितियों में आरोपी व्यक्तियों की पहचान सुनिश्चित करने के लिए पहचान परेड जरूरी थी। आरोपी की पहचान स्थापित करने में विफलता मामले की जड़ तक जाती है, इसलिए गलत पहचान की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।”
यह है मामले के संक्षित तथ्य
दरअसल दिनांक 8.04.2008 को हिमाचल प्रदेश के वक्फ बोर्ड के तत्कालीन किराया नियंत्रक ने आरोपी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई कि वह अन्य लोगों के साथ मिलकर हिमाचल प्रदेश के शिमला के सब्जी मंडी क्षेत्र में स्थित कुतुब मस्जिद में उसके और अन्य अधिकारियों के साथ झगड़ा कर रहा था। शिकायतकर्ता ने प्रस्तुत किया कि वह कुछ अन्य अधिकारियों के साथ वक्फ बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी द्वारा जारी आधिकारिक आदेश का पालन करते हुए मस्जिद के अंदर एक सीढ़ी को बंद करने के लिए मस्जिद गया था।
उसने आरोप लगाया कि जब वे सीढ़ियों को बंद करने के लिए प्लाईवुड लगा रहे थे तो मुख्य आरोपी लियाकत अली, जो उस समय स्थानीय हॉकर्स यूनियन का अध्यक्ष था, कई अन्य लोगों के साथ मस्जिद में पहुंचा, जो इस मामले में सह-आरोपी हैं। जैसा कि शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया, समूह ने उसे और अन्य अधिकारियों को पीटना शुरू कर दिया।
शिकायतकर्ता ने आगे बताया कि उसे और अन्य अधिकारियों को कई चोटें आईं। शिकायत के आधार पर पुलिस ने FIR दर्ज की और जांच पूरी होने के बाद ट्रायल कोर्ट के समक्ष आरोप पत्र दायर किया। ट्रायल कोर्ट ने सभी आरोपियों को भारतीय दंड संहिता (IPC) धारा 147 के तहत दंगा करने और IPC की धारा 333 सहपठित IPC की धारा 149 के तहत लोक सेवक को कर्तव्य से विरत करने के लिए स्वेच्छा से गंभीर चोट पहुंचाने के लिए दोषी ठहराया।
पीड़ित आरोपी ने हाईकोर्ट के समक्ष अपील दायर की। निष्कर्ष: अदालत ने पाया कि शिकायतकर्ता ने अपने बयान में केवल पांच व्यक्तियों का नाम लिया था। शेष आरोपियों का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में नहीं था।
शिकायतकर्ता ने यह भी स्वीकार किया कि पुलिस द्वारा कोई Identification Parade नहीं कराई गई थी। उसने पहली बार अदालत में आरोपियों की पहचान की। अदालत ने टिप्पणी की कि गवाहों के बयान से यह स्पष्ट है कि कुछ आरोपी गवाहों के लिए अजनबी थे। ऐसी परिस्थितियों में आरोपी व्यक्तियों की पहचान सुनिश्चित करने के लिए Identification Parade जरूरी है। इसने कहा कि आरोपी की पहचान स्थापित करने में विफलता मामले की जड़ तक जाती है, ऐसे में गलत पहचान की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
दाना यादव @ दाहू बनाम बिहार राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “सामान्यतः, यदि किसी अभियुक्त का नाम FIR में नहीं है तो न्यायालय में गवाहों द्वारा उसकी पहचान पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए, खासकर तब जब उन्होंने पुलिस के समक्ष अभियुक्त का नाम नहीं बताया हो।”
इसलिए न्यायालय ने माना कि जब कोई Identification Parade नहीं होती है तथा अभियुक्त की पहचान न्यायालय में पहली बार की जाती है तो इसे दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं माना जाना चाहिए, जब तक कि अन्य साक्ष्यों द्वारा इसका समर्थन न किया जाए। इसलिए जब FIR में कुछ अभियुक्तों के विरुद्ध कोई विशिष्ट आरोप नहीं था तो स्पष्ट रूप से अभियोजन पक्ष का यह कर्तव्य था कि वह न्यायालय के समक्ष पहचान के साक्ष्य प्रस्तुत करके अपने मामले को उचित संदेह से परे साबित करे कि अभियुक्त व्यक्तियों ने शिकायतकर्ता पक्ष को पीटा था। हालांकि, अभियोजन पक्ष का यह कर्तव्य था कि वह न्यायालय के समक्ष पहचान के साक्ष्य प्रस्तुत करके अपने मामले को उचित संदेह से परे साबित करे कि अभियुक्त व्यक्तियों ने शिकायतकर्ता पर हमला किया था। न्यायालय ने टिप्पणी की कि घटना एक व्यस्त मस्जिद के अंदर हुई थी, जो एक आबादी वाले क्षेत्र में स्थित थी, लेकिन किसी स्वतंत्र गवाह की जांच नहीं की गई। इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि जांच में गंभीर चूक हुई है और निचली अदालत द्वारा पारित दोषसिद्धि के फैसले को खारिज कर दिया।
Case Name: Liyakat Ali v/s State of HP
क्रिमिनल अपील – 67/10