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कम सबूतों के आधार पर दोषी को सजा की ‘जल्दबाज़ी’ उचित नहीं – सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सज़ा पाए व्यक्ति को किया बरी ।

दिल्ली- सर्वोच्च न्यायालय ने मौत की सज़ा पाए दोषी को इस आधार पर बरी कर दिया कि अभियोजन पक्ष मामले को संदेह से परे साबित नहीं कर सका। अपीलकर्ता को 2013 में अपने गाँव के घर में अपने परिवार के चार सदस्यों, जिनमें उसकी पत्नी, साली और पाँच साल से कम उम्र के दो बच्चे शामिल थे, उनकी हत्या का दोषी ठहराया गया। उसने यह हत्या किसी आर्थिक विवाद के चलते अपने परिवार से रंजिश रखते हुए की थी। 2020 में कपूरथला के एडिशनल सेशन जज ने उन्हें ‘दुर्लभतम’ श्रेणी में आने के कारण मृत्युदंड की सजा सुनाई, जिसे बाद में 2024 में पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने बरकरार रखा।

यह देखते हुए कि अभियोजन पक्ष के मामले में गवाही में बड़े विरोधाभास हैं और जांच संबंधी गंभीर खामियां भी हैं, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने दोहराया कि सबूतों का मानक पूरी तरह से सख्त है और इससे समझौता नहीं किया जा सकता।

पीठ ने कहा,

“यह स्थापित कानून है कि प्रत्यक्ष साक्ष्यों के आधार पर दोषसिद्धि दर्ज करने के लिए उनकी गवाही पूरी तरह विश्वसनीय और भरोसेमंद होनी चाहिए। हालांकि, वर्तमान मामले में जहां अभियोजन पक्ष के प्रमुख गवाहों की गवाही में बड़े विरोधाभास हैं। साथ ही जांच संबंधी स्पष्ट खामियां भी हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि अभियोजन पक्ष ने आरोप को संदेह से परे साबित कर दिया। पुनरावृत्ति की कीमत पर हमें यह कहना होगा कि सबूत का मानक बिल्कुल सख्त है। इससे कोई समझौता नहीं किया जा सकता। जब मानव जीवन दांव पर हो और कीमत खून की हो तो मामले को पूरी ईमानदारी से निपटाया जाना चाहिए। इसलिए मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए और उपरोक्त चर्चा के आलोक में हम अभियुक्त-अपीलकर्ता को आरोपित अपराध का दोषी नहीं ठहरा सकते क्योंकि उसका अपराध संदेह से परे साबित नहीं हुआ।”

अदालत ने टिप्पणी की है कि चूंकि इस मामले ने कुछ सनसनी पैदा की, इसलिए इसने जांच एजेंसियों पर अपराधी को खोजने का दबाव डाला, जिसके परिणामस्वरूप अंततः एक घटिया जांच हुई।

इसने न्याय देने में जल्दबाजी में लिए गए फैसलों के लिए निचली अदालत और हाईकोर्ट दोनों को समान रूप से दोषी ठहराया, जिसके कारण एक व्यक्ति, जिसके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं थे, मौत की सजा तक पहुंच गया। न्यायालय ने कहा, “न्यायिक व्यवस्था की विफलता तब स्पष्ट हो जाती है, जब किसी पर दोष मढ़ने की इतनी जल्दबाजी घटिया जांच और खराब तरीके से चलाए गए मुकदमे की ओर ले जाती है। इसका परिणाम अभियोजन पक्ष का एक ढीला-ढाला मामला होता है, जिसमें हर जगह स्पष्ट खामियां होती हैं, फिर भी ऐसे जघन्य अपराध में न्याय देने के लिए अदालतों का उत्साह यह सुनिश्चित करता है कि आरोपी व्यक्ति पर्याप्त सबूतों के बिना ही मौत की सजा तक पहुंच जाए। यही वह दुख है जो इस मामले में निहित है।”

न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष का मामला अपीलकर्ता की पत्नी के भाई (शिकायतकर्ता), अपीलकर्ता की सास और अपीलकर्ता के नाबालिग बेटे की गवाही पर आधारित है, क्योंकि घटना शिकायतकर्ता के घर में हुई, जहां उसकी बहन अपीलकर्ता का घर छोड़ने के बाद रह रही थी। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि वह अपनी प्रत्यक्षदर्शी मां के साथ घटनास्थल पर मौजूद था। हालांकि, शिकायतकर्ता की उपस्थिति के संदर्भ में इन गवाहियों में भारी विरोधाभास है।

इसके अलावा, शिकायतकर्ता की माँ के बयान में अदालत को शिकायतकर्ता की गवाही में विरोधाभास नज़र आता है, जिसमें कहा गया कि उसकी माँ गुरुद्वारे में थी, जबकि अपने बयान में उसने कहा कि वह अपीलकर्ता के डर से छिपी हुई थी।

इसके अतिरिक्त, अदालत ने पाया कि शुरू में शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि अपीलकर्ता के पास ‘दातार’ था, लेकिन बाद में उसने उसे ‘गंडासी’ में बदल दिया। अंत में अभियोजन पक्ष द्वारा की गई किसी भी बरामदगी, जैसे हथियार या खून से सने कपड़े, की पुष्टि स्वतंत्र गवाहों द्वारा नहीं की गई। अपील स्वीकार करते हुए जस्टिस नाथ द्वारा लिखित निर्णय ने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा पारित अंतिम आदेश और दोषसिद्धि के फैसले के साथ-साथ निचली अदालत के फैसले को भी रद्द कर दिया। इसमें कहा गया कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने इन विरोधाभासों को ‘मामूली’ बताकर दरकिनार कर दिया, जबकि ये विरोधाभास भौतिक विवरणों के थे।

न्यायालय ने इस संबंध में कहा, “इस मामले में इन गवाहों द्वारा अलग-अलग समय पर बताई गई घटनाओं के एक ही सेट के अलग-अलग संस्करण हैं, बयानों को अपनी सुविधानुसार वापस लिया गया। फिर से गढ़ा गया, जिससे बयानों में इस तरह के अंतर के कारण घटनाओं की श्रृंखला में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे हैं। परिणामस्वरूप, अभियोजन पक्ष की समय-सीमा और घटना के बारे में मूलभूत विवरण उसके दो प्रमुख गवाहों के बीच बिल्कुल भी पुष्ट नहीं होते हैं। इसलिए हम देखते हैं कि अभियोजन पक्ष के गवाहों की गवाही में विरोधाभास, जैसा कि ऊपर बताया गया, बड़े हैं और अभियोजन पक्ष की कहानी में एक बड़ा छेद कर देते हैं।” सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को भी दोषपूर्ण जांच का हवाला देते हुए एक और मृत्युदंड के दोषी को बरी कर दिया था।

BALJINDER KUMAR@KALA v. STATE OF PUNJAB|CRIMINAL APPEALNOS. 2688-2689 OF 2024

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